गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3व्रजांगनाएँ पुनः कह रही हैं, हे ऋषभ! करुणादिगुण-पूर्ण सर्वश्रेष्ठ व्रजेन्द्र-नन्दन! कालिय-कुल के व्यालों को तो आपने रमणक-द्वीप भेज दिया परन्तु हम व्रजांगना आपके रमणक-द्वीप के विहार-पुलिन में आपके भुजंग-भोगाभ भुजों से संपृष्ट होकर विरह-विष-ज्वाला से दग्ध हो रही हैं; हे व्रजेन्द्र कुमार, हमारे कण्ठ में अपनी भुजाओं की माला पहनाकर आप हमारा दुःख दूर करें। बकादि राक्षसों का संहार कर आपने उनसे हमारी रक्षा की परन्तु अब आपके अन्तर्धान हो जाने से आन्तर-मनोज-रूप राक्षस द्वारा हमारा वध हो रहा है। ‘द्वासुपर्णा सयुजा’ जैसी उक्ति के अनुसार आप यद्यपि सम्पूर्ण विश्व के ही सुहृद हैं तथापि अन्तर्धान होकर अपनी विरहानल-ज्वाला से विश्व-दाह का ही कारण बन रहे हैं; अस्तु, प्रतीत होता है कि आप विश्वमित्र नहीं, अपितु विश्वामित्र ही हैं। हे प्राणधन! तृणावर्त आदि राक्षसों से भी आपने हमारी रक्षा की; जिस समय तृणावर्त वात्यारूप से व्रजधाम का संहार करने के लए प्रस्तुत हुआ उस समय आप तृणावर्त के विनाश हेतु ही अन्तर्धान हुए थे, आपके वियोगजन्य असह्म ताप से संपूर्ण व्रजधाम ही दग्ध होने लगा; व्रजधाम की दशा का अनुभव कर आपने शीघ्र ही प्रकट होकर हम सबको जीवन-दान दिया। इन्द्रप्रेरित प्रलयंकारी मेघों के भीषण वर्षण के प्रसंग में ही वैद्युत, अनल, वज्रपात एवं उल्कापातादिकों से भी आपने हमारा रक्षण किया। इसी तरह आपने वृषभासुर एवं मयात्मज व्योमासुर जैसे भयंकर राक्षसों से भी हम व्रजवासियों का रक्षण किया। उपर्युक्त सभी प्रकार के भय एवं रक्षण की परम्परा से हम व्रजवनिताओं को कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं था; संपूर्ण व्रजधाम एवं व्रजनिवासियों के अन्तर्गत ही हमारी भी रक्षा स्वतः हो गई; परन्तु अब जबकि हम गोपांगनाओं से ही प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, केवल हमें सन्तप्त करने के लिए ही आप अन्तर्धान हो रहे हैं; अपने प्राकट्य से हमारी रक्षा न करते हुए हमारी मृत्यु का ही कारण बन रहे हैं। |