गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3महर्षि वाल्मीकि की कथा प्रसिद्ध ही है। महर्षि होने के पूर्व वे एक घोर डकैत थे; खून-खराबी एवं लूटमार करके अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करते थे। अकस्मात् भगवदनुग्रहवशात् कुछ महात्मा लोग घूमते हुए उसी वन-प्रान्तर में पधारे; डाके की ताक में लगे डकैत ने अभ्यासवश डाका डाला; महात्माओं ने उसको समझाया कि अपने कर्म-फल का भोक्ता प्राणी स्वयं ही होता है; जिस कुटुम्ब के पालन हेतु व्यक्ति शुभाशुभ सम्पूर्ण कर्मों को करता है उनके फल का भागी एकमात्र वही होता है। डाकू ने महात्माओं की सीख को चालाकी ही समझा; परानुग्रहरत महात्माओं ने डाकू को सुझाव दिया, “तुम हम लोगों को अपने रस्से से एक पेड़ में बाँध दो और स्वयं अपने परिवार से पूछ आओ।” डाकू को यह सलाह उचित प्रतीत हुई; तुरन्त ही उसने उन महात्माओं को एक पेड़ से बाँध दिया और स्वयं अपने परिवार में जाकर प्रत्येक सदस्य से पूछने लगा कि “मैं लूटमार, खून-खराबी कर तुम लोगों का पालन करता हूँ। क्या तुम लोग मेरे पाप में भी भागीदार बनोगे?” परिवार के प्रत्येक व्यक्ति ने उसके कठोर कर्म-फल में हिस्सा बँटाने से एकदम अस्वीकार कर दिया; डाकू को ज्ञान हो गया; वह महात्माओं की शरण में लौट आया; वह डाकू ही ‘मरा-मरा’ जप कर महर्षि हो गया। यहाँ तक कि भगवान राघवेन्द्र रामचन्द्र ने भी लोक-व्यवहारतः महर्षि बाल्मीकि के चरणों में नमन किया। तात्पर्य कि एकमात्र सर्व-सखा, सर्व-हितकारी, सर्वान्तर्यामी परमात्मा ही सदा-सर्वदा-सर्वत्र, गर्भवास में भी, नरक में भी जीवात्मा के संग-संग रहता हुआ भी जल में कमल-पत्र इव असंग एवं निर्लेप रहता है। सर्वेश्वर भगवान ही एकमात्र अकारण-करुण, करुणा-वरुणालय एवं अशरण-शरण हैं। ‘विषजलाप्ययाद् वर्षमारुताद् वयं रक्षिताः मुहुर्मुहः’ अनेक प्रकार के विषादि भयों से आपने बारम्बार हमारी रक्षा की तथापि अपने विप्रयोगजन्य तीव्र सतापस्वरूप विषम-विष-सम्पृक्त सिन्धु से हमारा उद्धार न करते हुए आप अब भी अन्तर्धान ही हैं। चान्द्रमसी ज्योत्स्ना से व्याप्त जगत भी आपके विप्रयोग के कारण भीषण विषमय ताप का जनक विषम-विष-संपृक्त सिंधु बन गया है। चान्द्रमसी ज्योत्स्ना सर्वदा-सर्वत्र अमृतवर्षिणी ही होती है तथापि भगवत-विरहजन्य संताप के कारण गोपांगनाओं को वैपरीत्य की ही भावना होती है। |