गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 128

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 3

शास्त्र का कथन है कि -

‘असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते।’[1]

अर्थात, पहले असत्य मार्ग पर चलकर ही सत्य वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है; तात्पर्य कि मिथ्या प्रतिबिम्ब के द्वारा ही सत्य बिम्ब का अनुमान सम्भव है; यह देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार, अनृत जड़ ही हैं तथापि इन्हीं के द्वारा हम अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश, विशुद्ध, परात्पर परब्रह्म को जान लेते हैं। श्रीमद्भागवत-वाक्य है-

‘एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।’[2]

अर्थात, अनृत से सत्य को, मर्त्य से अमृत को प्राप्त कर लेना ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी एवं मनीषियों को मनीषा है। ब्रह्म निर्विशेष है; वही ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[3] सत्य-स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप एवं आनन्द-स्वरूप है; ये शब्द अपने पारमार्थिक अर्थों में पर्यवसित नहीं होते; यथार्थतः इन शब्दों से किसी न किसी वसतु की निवृत्ति होती है; जितने भी शब्द हैं वे कोई न कोई विशेषण हैं और किसी न किसी वस्तु का अपनोदन करते हुए ब्रह्म में परिवर्तित हो जाते हैं। उदाहरणतः ‘सत्यं’ शब्द से मिथ्या वस्तु का अपनोदन होता है। अतः ब्रह्म सत्य है का तात्पर्य हुआ नाम-रूप-क्रियात्मक मिथ्या जगत-प्रपन्च से भिन्न तथा उसका भासक जो सत्य है वही ब्रह्म है। इसी तरह ‘ज्ञान’ शब्द से ‘जाड्याभावाधिकरणोपलक्षित ब्रह्म’ जड़ता का अत्यन्ताभावाधिकरण ही ब्रह्म है; यही ‘सत्यं’ ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[4] है; अस्तु, सूक्ष्मातिसूक्ष्म ब्रह्म की उपासना-हेतु उनके विशेषणों का ध्यान करना पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वा. प. ब्र. का.
  2. 11।29।22
  3. तै. उ. 2।1।1
  4. तै. उ. 2।1।1

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
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12. गोपी गीत 10 304
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