गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 3अस्तु, सर्वथा निश्चति हो वह हँसती-खेलती बाल-मण्डली उस मार्गरूप जिह्वा पर निर्भय हो चल पड़ी। अजगर में यह विशेष चमत्कार होता है कि अपने श्वास के आकर्षण से ही वह अपना आहार खींच लेता है; स्वेच्छया प्रवृत्त इस बालक-मण्डली को भी अजगर ने अपनी श्वास द्वारा पूर्णतः आकर्षित कर निगल लिया। अघासुर के उदर में पहुँचकर ग्वाल-बाल उसकी भीषण विष-संपृक्त-जठराग्नि से दग्ध होने लगे। इस विपत्ति में पड़कर वे रक्षा हेतु प्रार्थना करने लगे। ‘अनन्यनाथान् सुरक्षयामि’ इन अनन्य-नाथ ग्वाल-बालों की रक्षा करूँगा ऐसा संकल्प कर बालक श्रीकृष्ण भी उस काल-राक्षस के उदर में घुस गए और अपनी महिमा सिद्धि शक्ति द्वारा अपने आकार की अतिशय वृद्धि करते हुए अघासुर के पेट को फाड़कर ग्वाल-बाल एवं उनके गोधन को मुक्त कर अपनी अमृत-वर्षिणी दृष्टि द्वारा उनको प्राणदान दिया। अघ, पाप ही असुर है। जैसे अजगर द्वारा लील लिए जाने पर उस ग्वाल-मण्डली के जीवन की कोई आशा नहीं रह गई वैसे ही पापरूपी अजगर के फंदे में फँसने पर प्राणी के कल्याण की कोई आशा शेष नहीं रह जाती। जैसे अघासुर के पेट में फँसे हुए ग्वाल-गबाल उसकी भीषण विष-स्मपृक्त-जठराग्नि से दग्ध होने लगे वैसे ही पापरूप अजगर के फँदे में फँसा हुआ प्राणी भी दुष्कर्मजन्य विषयज्वाला से दग्ध होता रहता है। पाप-कर्म द्वारा तदनुकूल प्रवृत्ति एवं तज्जन्य संस्कार बनते जाते हैं; दूषित प्रवृत्ति एवं संस्कारों के कारण पुनः पाप-कर्म बन जाता है। अन्योन्याश्रित घटीवत् यह प्रवाह उत्तरोत्तर अभ्यासरूप में परिणत हो जाता है। जैसे ‘कण्टकेन कण्टकोद्धारः’ एक काँटे से दूसरा काँटा निकाला जाता है वैसे ही एक अभ्यास से दूसरे अभ्यास को मिटाया जा सकता है। सत्कर्म एवं प्रभु-चिन्तन का अभ्यास करने पर असत् कर्म। एवं दुर्विचार की श्रृंखला स्वतः नष्ट हो जाती है। अस्तु, सत्संग, सत्कर्म एवं सद्वाणी का अभ्यास निरन्तर करना चाहिए। ‘वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 1।2।11