गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 12

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

तब ‘नन्दादयोऽनुरागेण प्रावोचन्नश्रुलोचनाः’ नेत्रों से आँसुओं की धारा सतत बह रही है, ऐसी स्थिति में नन्दबाबा आदि लोग आकर कहने लगे- ‘आप भगवान को हमारी ओर से यह कहना-

‘मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्णपादाम्बुजाश्रयाः’

हमारे मन की वृत्तियाँ आपके चरणारविन्द में सर्वदा लगी रहें। और-

‘वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नाम्’

हमारी वाणी आपके नामस्मरण में सदा लगी रहे। और-

‘कायस्तत्प्रव्हणादिषु’

हमारी काया (देह) आपको प्रणाम करने में सदा लगी रहे।’ इस प्रकार जीवनभर की भलाई के पथस्वरूप मन, वचन और काया के सुधार की माँग कर चुकने पर उद्धवजी ने पूछा-बस? या और भी कुछ कहना है?’ तब उन्होंने कहा, अभी और कहना बाकी है।

कर्मभिभ्राम्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया।
मंगलाचरितैर्दानैर्मतिर्नः कृष्ण ईश्वरे।।

ईश्वरेच्छा से कर्मचक्र के द्वारा घुमाए हुए लोग जहाँ कहीं भी हों,वहाँ-वहाँ इस जन्म में हमने जो मंगलमय आचरण किये हों, उनके फलस्वरूप हमारी बुद्धि सर्वदा ईश्वर में बनी रहे। भक्तों को भगवत्प्रेम का उन्माद, वियोग-संयोग दोनों अवस्थाओं में होता रहता है। भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहने वाली, श्रीकृष्ण से विहार करने वाली द्वारिका की श्रीकृष्ण-पत्नियों का मन भगवान की लीला में इतना तन्मय हो जाता है कि उन्हें स्मरण ही नहीं रहता कि हम श्रीकृष्ण के समीप हैं। एक ही समय उन्हें कभी दिन को प्रतीत होती है, कभी रात्रि की। वे न जाने क्या-क्या बोल रही हैं- हे पक्षी! तू इस समय इस नीरव नीशीथ में क्यों जग रहा है? इस विलाप का क्या अर्थ है? क्या श्रीकृष्ण को मुस्कान और चितवन ने तुझ पर भी जादू डाल दिया है?

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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