गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 117

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

मानिनी व्रजांगनाएँ पुनः कह रही हैं हे वरद! ‘स्वदत्तानामपि वराणां खण्डकः वरान् द्यति खण्डयतीति वरदः’ आप अपने दिए हुए वरदान का ही खण्डन करने वाले हैं। कात्यायनी-व्रत के अन्तर्गत आपने स्वयं ही प्रकट होकर हम व्रजांगनाओं को स्वस्वरूप-संभोग का वरदान दिया था; अब अन्तर्धान होकर आप अपने दिए हुए वरदान का ही छेदन कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण में मानिनी गोपांगनाएँ दोषानुसन्धान, असूया करती हुई ‘वरद’ ‘सुरतनाथ’ सम्बोधनों का प्रयोग करती हैं।
श्रुति कथन है-‘शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति।’[1] अर्थात् शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु, श्रद्धान्वित, समाहित होकर अपने देह में, अपने आत्मा में अन्तःकरण में ही उस सर्वान्तरात्मा, सर्वान्तर्यामी का अनुसन्धान करो। ‘न गृहे विनष्टं वस्तु वनेन्विष्यते’ घर में खोई हुई वस्तु को घर में ही खोजना उचित है। श्रीमद्भागवत-कथन है-

‘त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च।
आत्मा पुनर्बहिर्मृग्य अहोऽज्ञजनताऽज्ञता।।’[2]

देहादिकों को आत्मा और आत्मा को देहादिक समझकर अज्ञ आत्मा को खोजते हुए बाहर भटकता है। वस्तुतः अन्तर्मुखता ही परम वांछनीय है, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति हो जाने पर प्राणी सर्वत्र ही भगवत-स्वरूप का अनुभव प्राप्त कर शान्ति प्राप्त कर सकता है।

‘अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव ह्यतत्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्तः।।’[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृ. उ. 4।4।23
  2. श्रीमद्भा. 10।14।27
  3. श्रीमद्भा. 10।14।28

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
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17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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