गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2वैदिक एवं तान्त्रिक ऐसे अनेक आभिचारिक कर्म होते हैं जिनके आधार पर बिना शस्त्रास्त्र ही शत्रु का हनन कर दिया जाता है। गोपांगनाएँ कह रही हैं कि हे श्यामसुन्दर! यह दृशावध भी आभिचारिक कर्म है। क्या यह अभिचार-कर्म, दृशा-घात भी वध नहीं है? हे मदन-मोहन! आपकी यह दृष्टि भी एक प्रकार का शर ही है। कुसुमधन्वा, कन्दर्प कुसुम-धनुष एवं कुसुम-शर द्वारा ही सम्पूर्ण संसार को वशीभूत किये हुए है। सम्पूर्ण कुसुमों में सरसिज ही परम प्रधान परमोत्कृष्ट है। शरत्कालीन स्वच्छ अगाध जलाशय में उद्भूत सरसिज-सम्राट् के कर्णिकान्तरनिवासिनी नवनवायमान श्री का अपहरण कर लेने वाली आपकी यह दृष्टि ही मानों कुसुमधन्वा, कन्दर्प का सर्वोत्कृष्ट शर है। आपके इन नेत्र-शरों द्वारा ही हम मनोरमा रमा-जनों का वध हो रहा है। सुरतनाथ! ‘अस्ति सुरतिर्येषां ते सुरताः’ जो आपमें सुष्ठु रूप से रत हैं, जो सम्यक् प्रकार से आपके भक्त हैं, वही सुरत हैं। इन सुरतजनों के नाथ, सुरतनाथ! आप तो स्वभाव से ही ‘सुरतानां नाथः सुरतानामुपतापकः’ सुरत जनों के तापक हैं। कहते हैं विष्णु की भक्ति करने वाले दरिद्र हो जाते हैं। भगवान स्वयं भी कहते हैं कि जिस पर उनका अनुग्रह होता है उसको वे देह-गेह-हीन कर देते हैं। जो आपके अत्यन्त रीति-प्रीतियुक्त हैं उनको भी आप सदा-सर्वदा उपताप ही पहुँचाते हैं। आपमें रति-प्रीति-युक्तजन आपके अदर्शन में दर्शन के लिए व्याकुल रहते हैं; दर्शन होने पर विप्रलम्भ-भय से सन्तप्त रहते हैं। रासेश्वरी राधारानी में प्रेम का ऐसा अद्भुत संचार है जिसको स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी नहीं समझ पाते और ललिता प्रभृति सखियों से कहने लगते हैं- ‘पूर्वानुरागगलितां मम लम्भनेऽपि अर्थात् हे सखी! यह (राधारानी) तो मेरे पूर्वराग में ही गलित हो चुकी है; मेरे सम्मिलन में भी लोकापवाद से दलित होती है; विप्रयोग में तो यह दावानल-ज्वलित-जातिवली सदृश हो जाती है। मैं इन्हें कैसे सान्त्वना दूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बा. कां. 256।1