गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2भागवत का उल्लेख है- ‘रहितात्मनां नः, केचिद् देहहीनाः केचिद् गेहहीना अपि जीवन्ति, अर्थात गेहहीन, धनहीन होकर भी जीवन चल सकता है; कदाचित् देहहीन होकर भी जीवन चल सकता है, परन्तु रहितात्मा होकर जीवन असम्भव हो जाता है। आपके न रहने पर हम ‘रहितात्मानः’ रहितात्मा हो जाती हैं, क्योंकि आप ही हम सबके अन्तरात्मा है। उपनिषद-कथन है, ‘प्राणस्य प्राणः’[2] अर्थात् भगवान ही प्राणों के प्राण हैं। भगवान ही पारमार्थिक सत्य, चैतन्य, नित्यानन्द, रस-स्वरूप हैं। महर्षि वाल्मीकि का भी कथन है, ‘लोके नहि स विद्येत यो न में राममनुव्रतः।’[3] अर्थात् लोक में ऐसा कोई प्राणी नहीं जो राम का अनुव्रत न हो। ‘रामचरितमानस’ महर्षि वशिष्ठ का कथन है, ‘प्राण के प्राण जीव जीवन के सुख के सुख राम’ भगवान ही सुख का सुखत्व एवं जीवन की सम्बित् शक्ति है। अतः गोपांगनाएँ कहती हैं कि “हे सुरतनाथ! आप जो हमारे प्राणों के प्राण एवं जीवन के जीवन हैं आपके त्रुटिमात्र का अदर्शन हमारी मृत्यु का कारण बन जाता है। सरसिजोदर-निवासिनी यह श्री भी आपकी दृष्टि में ही जीवित है इनके लिए भी आपका क्षणिक वियोग असह्य है। जैसे-जल-तरंगों से जल को निकाल देने पर उनका अस्तित्व ही लुप्त हो जाता है, वैसे ही आपके अदर्शन से हमारा अस्तित्व ही लुप्त होने लगता है। हमारे दर्प-दलन के लिए तो आपका कटाक्ष ही पर्याप्त है। निश्चय ही परम दयालु होने के कारण आप हमारी मृत्यु की कामना नहीं करते अतः अपने अदर्शन से हमारीं मृत्यु का कारण न बनें। कुत्सित कार्य तो सर्वदा सर्वत्र वर्जित है; यह तो वृनदावन जैसा पुनीत धाम है जिसकी पूजा सुख एवं शान्ति-कामना से की जाती है, अतः यहाँ तो वध और वह भी स्त्रियों का दृशा-वध जैसा अत्यन्त कुत्सित कर्म कदापि नहीं करना चाहिए।” |