गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2अर्थात् आपके दो रूप हैं, ब्रह्म एवं ईश्वर। ब्रह्मरूप अविक्रिय, निर्गुण, निराकार, निष्क्रिय हैं। उत्पादकीयतत्त्व, पालनीयतत्त्व एवं संहारतत्त्व विक्रियाएँ हैं अतः गुणभाव में ये क्रियाएँ भी असम्भव हैं। ईश्वर रूप मायाविशिष्ट है, सगुण है अतः ईश्वर ही विश्व-प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहृति का कारण है। जैसे आनन्द-सिन्धु का रमण अपने अन्तरंग अभेद माधुर्यसार-सर्वस्व में ही होता है किंवा आत्मविद् तत्त्वज्ञ ब्रह्मविद् वरिष्ठ आत्मा में ही क्रीड़ारत रहता है वैसे ही अनन्त परमानन्द-सुधा-सिन्धु कृष्ण का माधुर्य-सार-सर्वस्व की अधिष्ठात्री रासेश्वरी नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी में ही रमण सम्भव है। जैसे चन्द्र का अपनी चन्द्रिका से अथवा सूर्य का अपनी आभा, प्रभा, कान्ति से रमण अपेक्षाकृत बहिरंग है, वैसे ही पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध तुलनात्मक दृष्टि से कुछ बहिरंग ही है परन्तु कृष्ण एवं राधा का सम्बन्ध अमृत एवं उसकी परमान्तरंगा मधुरिमा किंवा गंगा-जल एवं उसकी शीतलता, पवित्रता की तरह ही परमान्तरंग एवं अभिन्न हैं। साक्षात परात्पर परब्रह्म परमेश्वर सच्चिदानन्दघन अपने माधुर्य-सार-सर्वस्व की अधिष्ठात्री महाशक्ति राधारानी को अभिव्यक्त कर निरन्तर उसी में रमण करते हैं, निरन्तर उसी को स्वप्रकाशत्त्व, अवेद्यत्वे। सत्यपरोक्षत्त्व रूप से जानते हैं। वह वेदन का अगोचर होकर अपरोक्ष है। विपर्यय, संशय एवं अज्ञान का अविषय ही स्वप्रकाश है; वेदन का गोचर नहीं अतः अवेद्य हैं; अवेद्य अपरोक्ष होकर स्वप्रकाशत्त्व ही आत्मा है। अस्तु, पूर्णानुराग-रस-सार-सरोवर-समुद्भूत सरोज वृन्दावन धाम, सरोज-किंजल्क गोपसोमन्तिनीजन, किंजल्क-पराग श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द एवं पराग-मकरन्द नित्यनिकुन्जेश्वरी, रासेश्वरी, राधारानी यद्यपि स्वभावतः ही अभिन्न हैं तथापि रस-विशेष के विकास हेतु उनमें भी अवान्तर भेद स्वीकृत होता है। |