गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 106

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सुरतनाथ हैं अतः गोपांगनाएँ काम-रूप शुल्क की याचना करती हैं। सर्वाधिष्ठान परमानन्द स्वरूप, औपनिषद परम पुरुष स्वयं रस-स्वरूप हैं तथापि परब्रह्म के निर्गुण, निराकार, अदृश्य, अग्राह्य, अलक्षण, अव्यपदेश्य, निर्विकार रूप में अवस्थित रहने पर सम्पूर्ण सम्भोग-सुख अवरुद्ध हो जाता है; सविशेष एवं सप्रपंच स्वरूप में विकसित नहीं हो पाता। अतः हे प्रभो! आपका स्पष्ट प्राकट्य भी होना चाहिए। वैष्णव-सिद्धान्तानुसार राधा-कृष्ण की स्थिति प्रकृति एवं पुरुष की अवस्थिति से भी परे है; प्रकृति-पुरुष तो कुछ निम्नस्तरीय तत्त्व माना गया है।

‘दूरे सृष्टधादिवार्ता न कलयति मनाङ् नारदादिस्वभक्तान्।
श्रीराधामेव जानन् मधुपतिरनिशं कुन्ज-वीथीमुपास्ते।।’

अर्थात, अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड का उत्पादन, पालन एवं संहार, कृष्ण का नहीं, अपितु ईश्वर का काम है। निर्गुण, निर्विकार, निष्क्रिय, निराकार स्वरूप कृष्ण सदा ही अपराशक्तिरूप रासेश्वरी, नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी में ही अन्तर्लीन है। जैसे प्रकाश में अन्तर्निहित विमर्श का बोधक भी प्रकाश ही है वैसे ही रासेश्वरी नित्यनिकुन्जेश्वरी राधारानी में अन्तर्विलीन कृष्ण का भाव भी प्रतिक्षण राधारानी में ही होता है। ईश्वर ही भक्तानुग्रह में प्रतृत्त होता है। वेदान्त-सिद्धान्तानुसार भी-

त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान् विभो वदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात्।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुद्धयते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः।।[1]

श्रीदामाद्यैः सुहृद्भिर्न मिलति हरति स्नेहवृद्धिं स्वपित्रोः।
किन्तु प्रेमैकसीमां मधुररससुधासिन्धुसारैरगाधाम्।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।3।19
  2. राधा-सुधा-निधि

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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