गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2अस्तु, संसार के सम्पूर्ण शुभाशुभ ज्ञान, शुभाशुभ विनिर्मुक्त भगवत चित् स्वरूप का ही परिणाम है तथापि शुभज्ञान ग्राह्य एवं अशुभ ज्ञान अग्राह्य। सच्चित्वत् आनन्द भी सम्पूर्ण प्रपन्च का कारण है। जिस प्रकार सर्व विशेषणमुक्त सत् ब्रह्म है उसी प्रकार निर्विशेष आनन्द भी शुद्ध परब्रह्म ही है। शुभाशुभ-विशेषणशून्य सत्-तत्त्व हेयोपादेयरहित हैं। सततत्त्व ही सुख-दुःखादि शुभाशुभ-विशेषणविशिष्ट होकर हेय अथवा उपादेय हो जाता है क्योंकि कार्य-कारण में अभिन्नता होती है। जैसे मृत्तिका का परिणाम घट उससे अभिन्न होता हुआ भी मूत्तिका के विशेषण रूप से भी अभीष्ट है अथवा जैसे घटाकाष, महाकाश का अवच्छेदक है और उसका विशेषण भूत घट भी आकाश से अभिन्न है उसी प्रकार शुभाशुभ विशेषण भी सत्-तत्त्व से अभिन्न ही है, तथापि व्यवहारतः विशेषण भूत होकर उसका भेदक भी है। अस्तु, सत् एवं चित् की तरह ही आनन्द भी शुभाशुभातीत ब्रह्मस्वरूप भूत ही है। शुद्ध आलम्बन एवं उद्दीपन के योग से जिस रस की अभिव्यन्जना होती है वह शुभ रस तथा अशुभ आलम्बन एवं उद्दीपन के योग से उद्बद्ध रसाभिव्यन्जना ही अशुभ है। शुभाशुभातीत विशुद्ध रसात्मक स्वरूप ही साक्षात परब्रह्म परमेश्वर है। देवता के आलम्बन एवं देव-विषय के उद्दीपन के संयोग से जिस रस की अभिव्यंजना होती है वह भक्ति के अन्तर्गत आ जाती है; रसस्वरूप परमात्मा के तत्-तत् देवतास्वरूप आलम्बन एवं उद्दीपन के संयोग से उद्बुद्ध भाव स्वयं ही रसात्मक हैं। लौकिक कान्त-कान्ता के संगम से प्रस्फुटित रसाभिव्यंजना भी मूलतः रसात्मक ही है तथापि लौकिक आलम्बन एवं उद्दीपन के संयोग से प्रस्फुटित होने के कारण अप्राकृतिक नहीं है। वस्तुतः श्रृंगार-रस ही अंगी-रस है, अन्य सम्पूर्ण रस श्रृंगार-रस के ही अंग हैं। भगवान ही सम्पूर्ण रस के अधिष्ठाता एव अधिपति हैं। भगवन्निष्ठ रस ही प्रसरित होकर संसार के भिन्न-भिन्न रसों में परिणत हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तै० उ० 3।6