गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 2विप्रयोगजन्य तीव्र-ताप से विदग्ध होकर गोपांगनाजन श्रीकृष्णचन्द्र में दोषारोपण भी करने लगती हैं। जैसे ज्ञानीजन विषयों से विरत रहने के हेतु उनमें अनेकानेक दोषानुसन्धान करते हैं वैसे ही गोपांगनाएँ भी प्रणय-कोप-वशात् श्रीकृष्णचन्द्र में ही दोषानुसन्धान कर उनके प्रति उपेक्षा-प्रदर्शन का अभिनय करती हैं। ज्ञानी कहते हैं ‘मोक्षमिच्छसि चेत्तात! विषयान् विषवत् त्यज’ हे तात! मोक्ष की इच्छा हो तो शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धात्मक सम्पूर्ण विषयों को विषसदृश जानकर उनका परित्याग कर दो। शंकराचार्यजी कहते हैं- चेतश्चन्चलतां विहाय पुरतः सन्धाय को टिद्वयम। अर्थात हे चित्त! चंचलता छोड़कर तू अपने सामने एक तराजू रख ले, तराजू के एक पलड़े पर अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड के सुख और दूसरे पलड़े पर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द की मधुर मनोहर मंगलमयी मूर्ति के सौन्दर्य-माधुर्य को रखकर तू स्वयं अपनी ही बुद्धि से तौल ले। जो तुझे वस्तुतः गम्भीर प्रतीत हो उसको ही ग्रहण कर ले। हे चंचल चित्त! विचार कर देख! अनन्त ब्रह्माण्ड के अनन्तानन्त वैषयिक सुख भी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द परमानन्दसुधाजलनिधि का बिन्दुमात्र भी नहीं है। भाव-विभोर गोपांगनाएँ कह रही हैं- ‘मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10।47।17