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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्
विगलित-लज्जित-जगदवलोकन-तरुण-करुण-कृतहासे। अनुवाद- अरी सखि! वसन्त के प्रताप से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण जगत निर्लज्ज हो गया है। यह देखकर तरुण करुण पादपसमूह (वृक्षराजि) प्रफुल्लित सुमनों के व्याज से हँस रहे हैं। देखो, विरहीजनों के हृदय को विदीर्ण करने के लिए बरछी की नोकके समान आकार वाले केतकी (केवड़ा) प्रसून चहुँदिशि प्रफुल्लित विलसित विकसित हो रहे हैं। इनके संयोग से दिशाएँ भी प्रसन्न हो रह हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी से कह रही है प्यारी सखि! और क्या कहूँ, इस वसन्तकाल में जगत के विरहीजन लाज का त्यागकर प्रियतम के विरह में रोदन कर रहे हैं। सम्पूर्ण जगत में प्राणीमात्र की ही लज्जा पूर्णरूपेण समाप्त हो गयी है। जगत की इस दशा का अवलोकन करके तरुण करुण विटपावली खिले एवं द्युतिमान पुष्पों के बहाने से हास्यसुधा बिखेर रही हैं। अथवा विलासिनी स्त्रियों के हृदय की कामवासना को जानकर नवतरुण पुरुष हास्यामृत को प्रकाशित कर रहा है। करुणा और हास्य दोनों किस प्रकार सम्भव है? करुणा इसलिए कि कण्ठाश्लेष प्रणयीजनों के वियोग में इनकी बड़ी दीन दशा होती है और हास्य का कारण है, विरहीजनों की अधीरता। खिले केतकी पुष्पों के अग्रभाग को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे विरहियों के हृदय का विदारण करने हेतु बरछी हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- विगलित-लज्जित-जगदवलोकन-तरुण-करुण-कृतहासे (विगलितं दूरं गतं लज्जितं लज्जा येषां [वसन्तस्य निरतिशयोद्दीपकत्वात् त्यक्तलज्जानामिति भाव:] तादृशानां जगतां जगद्रवासिनाम् अवलोकनेन दर्शनेन तरुणै: नवविकसित-पुष्पैरित्यर्थ: करुणै: तदाख्यवृक्षै: [करुणानेवु इति भाषा] कृत: पुष्पविकाशरूप-हास: यत्र तादृशे); यूनामेव कामाभिज्ञतया हास्यस्योपयुक्तत्त्वे श्लिष्टार्थस्य तरुणशब्दोस्योपादानम्) [तथा] विरहि-निकृन्तन कुन्त-मुखाकृति-केतकि-दन्तुरिताशे (विरहिणां वियोगिनां निकृन्तना: संहारका: ये कुन्ता: अस्त्रविशेषा: तेषां मुखानामाकृतिरिव आकृति-येषां तादृशै: केतकिभि: तन्नामक-कुसुमविशेषै: (केयाफुल इति भाषा) दन्तुरिता: कृतदन्तविकाशा: परिव्याप्ता इति यावत्र आशा: दिश: यत्र तादृशे) [सरसवसन्ते हरि: इत्यादि] ॥5॥
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