गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 97

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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मदन-महीपति-कनक-दण्डरुचि-केशर-कुसुम-विकासे।
मिलित-शिलीमुख-पाटल-पटल-ड्डत-स्मर-तूण-विलासे
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते.... ॥4॥[1]

अनुवाद- अब वन के विकसित पुष्प-समुदाय ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो मदनराज के हेमदण्ड हैं और भ्रमरावलि से परिवेष्टित पाटलि (नागकेशर) पुष्पसमूह ऐसे दिखायी दे रहे हैं, मानो कामदेव के तूणीर हों।

पद्यानुवाद
मदनराज के कनक-दण्ड-सा केसर-कुसुम-विकास,
पाटल पर भौरों की छविका अप्रित मधुर विलास।
जुड़ी है मधु-रसिकोंकी भीर,
नाचते हैं हरि सरस अधीर

बालबोधिनी- सखि! मदन-महीपति के सुवर्ण छत्र की विशिष्ट कान्ति के समान नागकेशर पुष्प प्रस्फुटित हो रहे हैं। उसमें भी भ्रमरावलि के तीक्ष्ण दन्तरूपी वाणों से बिद्ध यह वसन्तकाल विरहीजनों के हृदय को भेद रहा है ॥4॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- मदन-महीपति-कनक-दण्ड-रुचि-केशर-कुसुम विकाशे (मदनमहीपते: मदन-राजस्य य: कनकदण्ड: स्वर्णमययष्टि: तस्य रुचिरिव रुचिर्यस्य तादृश: केसर-कुसुमानां नागकेसरपुष्पानां विकाशो यस्मिन् तथोक्ते); [तथा] मिलित-शिलीमुख-पाटलि-पटल-कृत-स्मर-तूण-विलासे (मिलिता: समवेता: शिलीमुखा: भ्रमरा: येषु तादृशै: पाटलिपटलै: पाटलाकुसुमनिकरै: कृत: सम्पादित: स्मरस्य कामस्य य: तूणस्तस्य विलास: चेष्टितं यस्मिन् तादृशे पाटलि: पारुलफुल इति भाषा; पाटलिपुष्पस्य तूणाकारत्वात् शिलीमुखशब्दस्य च श्लिष्टत्वात् साम्यं) सरसवसन्ते इत्यादि ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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