गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 96

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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मृगमद-सौरभ-रभसवशंवद नवदलमाल-तमाले।
युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-नखरुचि-किंशुकजाले
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते.... ॥3॥[1]

अनुवाद- तमाल वृक्षावली नूतन पल्लवों से विभूषित हो मानो कस्तूरी की भाँति चारों ओर सौरभ का विस्तार कर आमोदित हो रही है। देखो, देखो सखी! इन प्रफुल्लित ढाक (पलाश) के पुष्पों की कान्ति कामदेव के नख के समान दिखायी दे रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मदनराज ने मानो युवक युवतियों के वक्षस्थल को विदीर्ण कर दिया है ॥3॥

पद्यानुवाद
मृगमद-सौरभ सम विस्तारित परिमल मधुर तमाल
युवजन मन-बेधक मनसिज-कर नखरुचि किंशुक जाल।
हृदयमें उठती रह रह पीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर

बालबोधिनी- समस्त दिशाओं में तमाल वृक्ष के नवीन पल्लव सुशोभित हो रहे हैं और उनकी सुगन्ध कस्तुरी के समान चतुर्दिशि व्याप्त हो रही है। प्रस्फुटित पलाश कुसुम-समूह को देखकर लगता है कि वे मानो विरही युवक युवतियों के हृदय को विदीर्ण करने के साधनभूत मदनदेव के नखरे-नख रूपी आयुध विशेष हैं। अर्थात् श्रीमाधव का अंगसौरभ चारों ओर आमोदित हो रहा है, परन्तु उनका विरह अति असहनीय हो गया है। उनके विरह में युवतियों का हृदय विदीर्ण हो गया है। यह बड़ा ही कठोर है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- मृगमद-सौरभ-रभस-वशंवद-नव-दलमाल-तमाले (मृगमदस्य कस्तूरिकाया: य: सौरभ-रभस: सौरभ-वेग: सौगन्धातिशय इति यावत् तस्य वशंवदा वशववर्त्तिनी अनुकारिणीति भाव:, नव-दल-माला किशलयसमूह: येषु तादृश:, तमाला: यस्मिन् तथा-भूते); [तथा] युवजन-हृदय-विदारण-मनसिज-नखरुचि-किंशुक-जाले (युवजनानां तरुणानां हृदय-विदारणा: हृदयभेदकरा: मनसिजस्य मदनस्य ये नखा: तेषां रुचि: शोभाइव रुचि: शोभा येषां तथाभूतानां किंशुकानां पलाश-कुसुमानां जालं समूह: यस्मिन् तादृशे) [सरस-वसन्ते हरि: इत्यादि ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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