गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 94

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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जब वसन्त विलास होने से अचेतन लता भी कान्त के बिना नहीं रह सकती, तब चेतनस्वरूपा स्त्रीलता कान्त के बिना कैसे रह सकती है? इसमें भी मधुकरों का गुंजन, कोयलों का कूजन और भी हृदय विदारक हो जाता है। जब माधवी और बेली पुष्पों के सौरभ से मुनियों का मन भी आकर्षित हो जाता है, तब कामी-कामिनियों की तो बात ही क्या?

पुन: माधव की स्फूर्ति प्राप्त होने पर सखी कहती है माधवी-लता जब आम्र वृक्ष का आलि न करती है, तो मंजरियाँ पुलकित हो उठती हैं। जैसे किसी वर सुन्दरी के द्वारा किसी पुरुष को आलि न किये जाने से वह पुलकित हो जाता है, वैसे ही आज श्रीहरि यमुना जल से व्याप्त वृन्दाविपिन में वसन्तकाल की शोभा से मुग्ध होकर युवतियों द्वारा आलि न परायण होकर विहार कर रहे हैं।

इस श्लोक में श्रृंगार के उद्दीपन विभागों का वर्णन है। इन विभागों से विप्रलम्भ-श्रृंगार की पुष्टि होती है ॥1॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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