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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्
अर्थात यह आत्मा स्वभाव से कर्म के बन्धन से रहित, जरा, मृत्यु, शोक, मोह, भूख, प्यास से रहित सत्य काम तथा सत्यसप्रल्प है। संसार बन्धन में पड़े रहने से ये गुण तिरोहित हो जाते हैं और भगवान की कृपा होने पर आविर्भूत हो जाते हैं। इसलिए 'भवखण्डन' कहकर भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया है। मुनिजनमानसहंस- मुनिजनानां मानसानि इव मानसानि तेषु हंस इव हंस अर्थात मननशील मुनियों के मानस रूप मानसरोवर में श्रीभगवान उसी प्रकार विहार करते हैं, जैसे राजहंस मान सरोवर में। आपके विहार करने से इन मुनियों में सदा स्फूर्त्ति होती रहती है। ये मुनिगण सम प्रकृति होकर कष्ट सहन करते हैं और विनय आदि गुणों से सम्पन्न होकर भजन करते हैं। भगवान की कृपा होने से ये संसार से विरक्त हो जाते हैं। देव-दिव्य गुणों से सम्पन्न होनेके कारण भगवान को 'देव' शब्द से अभिहित किया है। जय इस क्रियापद का प्रयोग कवि की आदरातिशयता का द्योतक है। प्रस्तुत पद के नायक धीर शान्त हैं ॥2॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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