गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 73

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्

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अर्थात यह आत्मा स्वभाव से कर्म के बन्धन से रहित, जरा, मृत्यु, शोक, मोह, भूख, प्यास से रहित सत्य काम तथा सत्यसप्रल्प है।

संसार बन्धन में पड़े रहने से ये गुण तिरोहित हो जाते हैं और भगवान की कृपा होने पर आविर्भूत हो जाते हैं। इसलिए 'भवखण्डन' कहकर भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया है।

मुनिजनमानसहंस- मुनिजनानां मानसानि इव मानसानि तेषु हंस इव हंस अर्थात मननशील मुनियों के मानस रूप मानसरोवर में श्रीभगवान उसी प्रकार विहार करते हैं, जैसे राजहंस मान सरोवर में। आपके विहार करने से इन मुनियों में सदा स्फूर्त्ति होती रहती है।

ये मुनिगण सम प्रकृति होकर कष्ट सहन करते हैं और विनय आदि गुणों से सम्पन्न होकर भजन करते हैं। भगवान की कृपा होने से ये संसार से विरक्त हो जाते हैं।

देव-दिव्य गुणों से सम्पन्न होनेके कारण भगवान को 'देव' शब्द से अभिहित किया है। जय इस क्रियापद का प्रयोग कवि की आदरातिशयता का द्योतक है।

प्रस्तुत पद के नायक धीर शान्त हैं ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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