गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 71

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ द्वितीय सन्दर्भ
2. गीतम्

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दिनमणि-मण्डल-मण्डन! भवखण्डन!
मुनिजन-मानस-हंस!
जय जय देव हरे ॥2॥[1]


अनुवाद - हे देव! हे हरे! हे सूर्य-मण्डल को विभूषित करने वाले, भव-बन्धन का छेदन करने वाले! मुनिजनों के मानस सरोवर में विहार करने वाले हंस! आपकी जय हो! जय हो ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय - [अथ सवितृमण्डलान्तर्ध्येयत्वेन धीरशान्तत्त्वमाह]- हे दिनमणिमण्डलमण्डन (हे सवितृमण्डलभूषण) [अनेन क्लेशसहत्वं विनयादिगुणोपेत्वञ्च सूचितम्) [अतएव] हे मुनिजनमानस-हंस (मुनिजनानां मानसं चित्तं तदाख्य: सरइव तत्र स्थित हंस) [हंसो जलचरजीवविशेष: तदाख्यपरममन्त्रस्वरूपश्च]; [अनेन समप्रकृतिकत्वं विनयादिगुणोपेतत्त्वञ्च सूचितम्]; हे भवखण्डन (भवं संसारं खण्डयतीति तत्सम्बुद्धौ), संसारबन्धखण्डनकृत्), हे देव, हरे, जय जय (उत्कर्षमाविष्कुरु) ["सम प्रकृतिकक्लेश- सहनश्च विवेचक:। विनयादिगुणोपेतो धीरशान्त उदीर्यते"] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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