गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 59

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद

लेच्छ-नाश-असि धरे विशाला,
धूमकेतु-सम बने कराला।
केशव कल्कि-रूप लसे, जय जगदीश हरे ॥10॥

बालबोधिनी - दशवें पद में भगवान के कल्कि अवतार की प्रशंसा की जा रही है। बिना युद्ध किये प्राणियों का संहार नहीं होगा, बिना संहार किये शान्ति भी नहीं आयेगी। इसलिए आप कल्कि रूप धारण कर म्लेच्छों का विनाश करते हैं। दुष्ट मनुष्यों का संहार करने के लिए भगवान भयंकर काल कराल रूप तलवार को धारण करते हैं। 'किमपि' पद से कवि द्वारा कृपाण की भयंकर स्वरूपता दिखाई है।

धूमकेतुमिव- धूमकेतु एक तारा विशेष का नाम है। जिसके उदित होने पर महान उपद्रव की शंका की जाती है। भगवान का कृपाण रूपी धूमकेतु म्लेच्छों के अमंग लंका सूचक है। धूमकेतु शब्द अग्नि का भी वाचक है, जिससे म्लेच्छ समुदाय का अनिष्ट सूचित होता है।

प्रस्तुत पद के नायक धीरोद्धत हैं। कल्कि भगवान को वीर रस का अधिष्ठाता माना जाता है ॥10॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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