गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 54

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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दशमुख मौलि बलिम्-इस पद की व्युत्पत्ति दशमुखस्य ये मौलया तान्येव बलिम अर्थात रावण के किरीट मण्डित शिर ही बलि हैं। यद्यपि मौलि शब्द शिर और किरीट दोनों का वाचक है तथापि मौलि मण्डित शिर यह अर्थ तटस्थ लक्षण के द्वारा स्वीकार किया जाता है ॥7॥

वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभम्
हलहति-भीति-मिलित-यमुनाभम्र।
केशव धृत-हलधररूप
जय जगदीश हरे ॥8॥[1]


अनुवाद - हे जगत स्वामिन्! हे केशिनिसूदन! हे हरे! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात नूतन मेघों की शोभा के सदृश नील वस्त्रें को धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुना जी मानो आपके हल के प्रहार से भयभीत होकर आपके वस्त्र में छिपी हुई हैं। हे हलधर स्वरूप! आपकी जय हो ॥8॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय - हे केशव! हे धृतहलधररूप! (धृतबलदेवशरीर!) त्वं विशदे (शुभ्रे) वपुषि (देहे) जलदाभं (नवघनश्यामं) [अतएव] हल-हति-भीति-मिलित-यमुनाभं (हलस्य ला लांगस्य हत्या आघातेन या भीति: तया मिलिता पादपतिता शरणागता इति यावत् या यमुना तस्या भा: प्रभाइव भा दीप्तिर्यस्य तादृशं) वसनं (वस्त्रं नीलाम्बरमित्यर्थ:) वहसि (धारयसि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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