गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 53

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद-

दिक्रपति कान्ति हुई कमनीया,
पा रावणकी बलि रमणीया।
केशव रघुपति-रूप लसे, जय जगदीश हरे ॥7॥

बालबोधिनी - सातवें पद्य में श्रीराम-स्वरूप का वर्णन हुआ है। हे प्रभो! प्रिया वियोगादि दु:ख को सहन करने के लिए आप रघुकुल तिलक श्रीराम रूप में अवतरित हुए। भयानक संग्राम में संसार रुलाने वाले रावण के दश मस्तकों को अनन्त काल के लिए समर्पित कर दिया है अर्थात रावण के शिरों को काटकर श्रीभगवान ने दिक्‌पालों को बलि चढ़ाया जिससे कि संसार में राक्षसों के द्वारा बढ़े हुए उत्पातों की शान्ति हो जाय।

दिक्‌पालों को रावण की बलि अत्यन्त अभीष्ट थी। रावण का वध हो जाने से यह बलि लोकाभिराम बनी। इस बात को जयदेव कवि ने 'दिक्रपति कमनीयम्र' एवं 'रमणीयम्र' इन दो पदों के द्वारा अभिव्यक्त किया है। दिक्रपालों की संख्या दश है तथा रावण के किरीट मण्डित शिरों की संख्या भी दश ही है। यही कारण है कि दिक्‌पालों को यह बलि अत्यन्त कमनीय थी।

दूसरों को उद्वेग देने वाले रावण का संहार कर भगवान ने जगत में सभी का आनन्द वर्द्धन किया है।

इस पद के नायक धीरोदात्त हैं। भगवान के राम अवतार में करुण रस का प्रकाश होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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