गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 52

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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वितरसि दिक्षु रणे दिक्पति-कमनीय
दशमुख-मौलि-बलिं रमणीयम्।
केशव धृत-रामशरीर
जय जगदीश हरे ॥7॥[1]

अनुवाद - हे जगत स्वामिन श्रीहरे! हे केशिनिसूदन! आपने रामरूप धारण कर संग्राम में इन्द्रादि दिक्‌पालों को कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावण के किरीट भूषित शिरों की बलि दशदिशाओं में वितरित कर रहे हैं। हे रामस्वरूप! आपकी जय हो ॥7॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय - हे केशव! हे धृत-रघुपतिरूप! (स्वीकृत-दाशरथि-देह) रणे (युद्धे) दिक्‌पति-कमनीयं (दिशां पतीनाम् इन्द्रादिलोकपालानां कमनीयं वाञ्छनीयं) [दशसु] दिक्षु रमणीयं (शोभाकरं) दशमुखमौलिवलिं (रावणदशमुण्डोपहारं) वितरसि (ददासि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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