गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 515

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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बालबोधिनी- कवि जयदेव कहते हैं कि श्रीपुरुषोत्तम के हस्त व्यापार अपने पाठकों एवं श्रोताओं को अतिशय आनन्द सम्पत्ति प्रदान करें। इन हाथों का यह वैशिष्ट्य है कि ये नित्य-निरन्तर वेणी संगम में आनन्दित होते रहते हैं। प्रयाग का फल कुच है। स्वाधीनभर्तृका श्रीराधा के साथ यमुना के तट पर श्रीकृष्ण स्वेच्छापूर्वक अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हैं। श्रीराधा की रोमावली एवं मुक्तावली का संगम गंगा-यमुना नदी के संगम विलास का स्मरण कराता है। रोमावली की उपमा यमुना से की गई है क्योंकि वह कृष्णवत् नीलवर्णा है। मुक्तावली उज्ज्वल है। अत: उसकी तुलना गंगा से की गई है। उनका संगम ही प्रयाग होता है। कुच द्वय उस प्रयाग स्नान के फल हैं, उसकी प्राप्ति ही स्नान के फल की प्राप्ति है। नीली-नीली यमुना की धारा और उजली-उजली मौक्तिकावली के संगम के कारण श्रीराधा ही प्रयाग हैं। इस प्रयाग के आनन्दप्रद फल को प्राप्त करने की इच्छा से श्रीकृष्ण जो हस्त व्यापार कर रहे हैं, वे व्यापार समस्त पाठकों के लिए अभिवृद्धिशील आनन्द का विधान करें।

प्रस्तुत प्रबन्ध का नाम 'सुप्रीतपीताम्बर तालश्रेणी' है।

प्रस्तुत श्लोक में सांगरूपकालंकार ही शार्दूलविक्रीड़ित छंद है, स्वाधीनभर्तृका नायिका है। पाञ्चाली रीति एवं गीति है। भारती वृत्ति है। धीरोदात्त गुणों से युक्त उत्तम नायक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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