गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 51

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद

'वीर-रुधिर' से धो पापों को,
और शमन कर भव-तापों को।
केशव भृगुपति-रूप लसे, जय जगदीश हरे ॥6॥

बालबोधिनी - छठवें पद्य में श्रीपरशुराम अवतार की स्तुति की है, हे प्रभो! भृगुपति रूप धारण कर आपने एक बार नहीं, इकतीस बार ब्राह्मण विद्वेषी क्षत्रियों का विनाशकर उनके रुधिर से निर्मित सरोवर को कुरुक्षेत्र का ह्रद तीर्थ बना दिया है, जिसमें स्नान करने से समस्त जगत के प्राणियों के पापों का मोचन होता है और संसार के समस्त तापों से मुक्ति मिलती है। ज्ञान की उत्पत्ति होने से उत्तापों की शान्ति होती है। प्रस्तुत पद में स्वाभाविकोक्ति अलप्रार तथा अद्भुत रस है। परशुराम अवतार को रौद्र रस का अधिष्ठाता माना जाता है। यहाँ तक छह पद्यों के नायक को धीरोद्धत नायक कहा जाता है ॥6॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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