गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 508

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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पद्यानुवाद
कुच पर पत्र, चित्र गालों पर, जघन करमानी,
केशे सुमन सजाओ, राधा बोली हे- पीताम्बर वेशे।
कलय-वलय कर, पद मणि नूपुर पहनाओ हे मेरे।
हरि विहँसे कह- प्रिये! समर्मित हूँ! चरणों में तेरे॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव इस अष्टपदी के सूत्रों की पुन: अवतारणा करते हुए कह रहे हैं कि पीताम्बर श्रीकृष्ण को श्रीराधा के द्वारा जो कुछ भी कहा गया, उन्होंने प्रसन्न मन से सब वैसा ही सम्पन्न किया। 'अपि' पद से घोषित होता है कि श्रीराधा का जो-जो अभीष्ट था, श्रीकृष्ण के द्वारा वैसा-वैसा श्रृंगार अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सम्पन्न हुआ। श्रीराधा का सानुनय आग्रह है कि हे यदुनन्दन! स्तनों पर पत्रवली की चित्रकारी कर दीजिए, मेरे गालों पर मकर आदि की चित्र रचना कर दीजिए। मेरी कमर में आप करधनी पहना दीजिए, मेरे बालों से माला निर्माल्य हो गयी है आप मनोहर माला से मेरे केशों को ग्रंथन कर दीजिए, हाथों में कंगन पहना दीजिए, मेरे पैरों में मणिमय नूपुर पहना दीजिए। श्रीकृष्ण द्वारा यह पूरा ही श्रृंगार सम्पादित किया गया अत्यन्त प्रीति एवं आनन्द के साथ। श्रीकृष्ण ही श्रीराधा के सम्पूर्ण मण्डन बन गये।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छंद यथा संख्या अलंकार, प्रगल्भा नायिका, दक्षिण नायक तथा श्रृंगार रस का संयोग पक्ष निरूपित हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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