गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 507

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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रचय कुचयो पत्रश्चित्रं कुरुष्व कपोलयो:
घटय जघने काञ्चीं मुग्धस्त्रजा कबरीभरम।
कलय वलयश्रेणी पाणौ पदे कुरुनूपुरा-
विति निगदित: प्रीत: पीताम्बरोऽपि तथाकरोत् ॥1॥[1]

अनुवाद- हे प्राण प्रिय! आप मेरे कुचों पर पत्र रचना कीजिए। मेरे कपोलों पर चित्रवली रचना कीजिए, जघन-स्थली को करधनी से सजा दीजिए। बालों में मनोहर कबरी बन्धन कीजिए, हाथों में कंगन पहनाइए, पैरों में नूपुर पहना दीजिए। श्रीराधा ने इस तरह जो कुछ कहा, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर वैसा ही किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अयि प्राणेश्वर] [मम] कुचयो: (स्तनयो:) पत्रं (चित्रविशेषं) रचय; कपोलयो: (गण्डयो:) चित्र कुरुष्व; जघने काञ्चीं घटय (परिधापय); स्रजा (मालया) कबरीभरं (केशपाशं) अञ्च (अलंकुरु); पाणौ वलयश्रेणीं कलय (विन्यस्य); पदे (चरणे) नूपुरौ कुरु (परिधापय)- इति [अत्यावेशभरेण] राधया निगदित: (अनुरुद्ध:) पीताम्बर: (श्रीकृष्ण:) अपि प्रीत: [सन्] तथा (श्रीराधोक्तं तत्तत् सर्वमेव) अकरोत् (सम्पादितवान्) [अपिशब्देन रतान्तर्वसन-व्यत्ययाभावेऽपि तदाज्ञाकरणात् तस्या-खण्डित-तदधीनत्वं द्रढ़ीकृतम् ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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