गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 504

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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पद्यानुवाद
सरस जघन घन पर मणि रसना वसनाभरण फबीले,
पहनाओ सत्त्वर शुभ आशय! (कँपते नयन लजीले!)
हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन! इतनी अनुनय मेरी,
पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन! लगा रहे क्यों देरी?

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं हे शोभन हृदय! हे हृदयानन्दन! हे प्राणनाथ! हे शुभाशय! आपके करकमल समस्त शुभों के आशय हैं, आपका हृदय अति सरस सभी मंगलों का मूल है। आप मेरी जघन-स्थली, श्रोणी-तट को मणिमय करधनी, वसन एवं आभरणों से अलंकृत कर दीजिए। मेरी जघनस्थली सरस, स्निग्ध और सान्द्र है। कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी के निवास हेतु कन्दरा के समान सुन्दर एवं मनोहर है। आप यहाँ वस्त्र एवं आभूषण धारण कराइये। आप ही मेरे कटि तट के अलंकार हैं।

प्रस्तुत पद में अनुकूल नायक है, प्रगल्भा नायिका है तथा संभोग श्रृंगार रस है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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