गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 50

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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क्षत्रिय-रुधिरमये जगदपगत-पापम्
स्नपयसि पयसि शमित-भवतापम्।
केशव धृत-भृगुपतिरूप
जय जगदीश हरे ॥6॥[1]


अनुवाद - हे जगदीश! हे हरे! हे केशिनिसूदन! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुल का विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिल से जगत को पवित्र कर संसार का सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन्, आपकी जय हो ॥6॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय - हे केशव! हे धृतभृगुपतिरूप! (धृतपरशुरामविग्रह)। [हैययवंशीयैरुन्मार्ग-प्रस्थितै: नृपकुलापसदै: समाधावासक्तं पितरं महर्षि जमदग्निं निहतमवगम्य पितृ-वधामर्षजकोपात् गुरुतरपरशुमादाय] क्षत्रियरुधिरमये (क्षत्रशोणितरूपे) पयसि (जले) अपगतपापम् (अपगतानि पापानि यस्य तत्र) अतएव शमित-भवतापम् (शमित: उपशमतां प्राप्त: भवस्य संसारस्य ताप: सन्तापो यस्य तादृशं) जगत्र स्नपयसि (प्रक्षालयसि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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