गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 499

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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पद्यानुवाद
अमल कमल मुख पर पिय बिखरी ये अलकें सुलझाओ,
रह-रह झूम चूम उठते अलि, इनको दूर भगाओ!
हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन! इतनी अनुनय मेरी,
पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन! लगा रहे क्यों देरी?

बालबोधिनी- श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- हे यदुनन्दन! मेरे मुख की शोभा ने कमलों को भी जीत लिया है। आप इस मनोहर, विमल एवं अनवद्य मुख पर अलकों से प्रसाधन करें। मेरी अलकावली नर्म-परिहास वचनों की जननी है और नित्य निरन्तर पद्मों के ऊपर घिर आयी भौरों की भीड़ का भ्रम उत्पन्न करती है। आप ही तो मेरे मुखारविन्द के कुन्तल हैं।

प्रस्तुत पद में अलक भ्रमर पंक्ति के द्वारा मुखपद्म की उत्प्रेक्षा की गयी है। अत: यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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