गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 498

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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भ्रमरचयं रचयन्तमुपरि रुचिरं सुचिरं मम सम्मुखे।
जित-कमले विमले परिकर्मय नर्मजनकमलकं मुखे॥
निज.... ॥4॥[1]

अनुवाद- मनोहर और अमल कमलों को भी जीतने वाले विमल एवं रुचिर मेरे मुख पर नर्म परिहास जनक भ्रमरों की शोभा प्रकाशित करने वाले मेरे मुख पर आप सुन्दर अलकावली को गूँथिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अयि नाथ] मम सम्मुखे (समक्षमवस्थाय) जितकमले (जितं सुषमा-पराजितं कमलं येन तादृशे) विमले (निर्मले) मुखे सुचिरं (बहुक्षणं व्याप्य) भ्रमरचयं (भ्रमरसमूहं) रचयन्तं (भ्रमर-पंक्तिबुद्धिं जनयन्तं) [अतएव सखीनां] नर्मजनकं (परिहासजनकं नेत्रञ्जनमिति भाव:) अलकं (चूर्णकुन्तलं) परिकर्मय (संस्कुरु विरचय इत्यर्थ:) [अत्र मुखस्य कमलत्वेन, अलकस्य च भ्रमरत्वेन निरूपितम्] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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