गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 495

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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पद्यानुवाद
रति नायक सायक मोचन ये, लोचन आँजो फिर से,
चुम्बन गलित हुआ कजल है, जिस पर भौंरे तर से।
हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन! इतनी अनुनय मेरी,
पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन! लगा रहे क्यों देरी?

बालबोधिनी- हे प्रिय! हे हृदयानन्दन! श्रीराधा इस प्रकार आगे कहती हैं कि मेरी आँखों में नूतन कज्जल रेखा को आँजो। यह इतनी उज्ज्वल हो कि भ्रमर-समूह भी तिरस्कृत हो जायँ। मेरे ही कटाक्षपात से कामदेव के बाण चलते हैं। तुम्हारे द्वारा अधर-चुम्बन करने से मेरी आँखों का काजल फैल गया है। इस पद से श्रीकृष्ण के द्वारा श्रीराधा के नेत्रों का चुम्बन भी अभिव्यक्त हो रहा है। आप ही तो मेरी आँखों का अञ्जन हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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