गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 494

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

चतुर्विंश: सन्दर्भ:

24. गीतम्

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अलिकुल-गञ्जन-सञ्जनकं रतिनायक-शायक-मोचने।
त्वदधर-चुम्बन-लम्बित-कज्जलमुज्ज्वलय प्रियलोचने॥
निज.... ॥2॥[1]

अनुवाद- हे प्रिये! रतिनायक कामदेव के सायकों को छोड़ने वाली मेरी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों के चुम्बन से गलित हो गया है, अलि-कुल को भी तिरस्कृत करने वाले कज्जल को मेरी आँखों में उज्ज्वल कीजिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि प्रिय (प्रीतिभाजन), रति-नायक-शायक-मोचने (रतिनायकस्य मदनस्य शायकान् बाणान् कटाक्षादिरूपान् मोचयतीति तथोक्ते कज्जलादिकमपि तत्रपेक्षितमस्तीति भाव:) [मम] लोचने (नेत्रे) अलिकुल-गञ्जन-सञ्जनकं (अलिकुल- गञ्जनं सञ्जनयति इति तादृशं भ्रमर-निकर-तिरस्कारकमित्यर्थ:) त्वदधर-चुम्बन-लम्बित-कज्जलम (तवाधरचूम्बनेन, लम्बितं गलितं कज्जलं) उज्जलय (उज्जलं कुरु; पूर्ववत् विधेहीत्यर्थ:) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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