गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 490

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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[अथ सा निर्गतबाधा राधा स्वाधीनभर्तृका।
निजगाद रतिक्लान्तं कान्तं मण्डनवाञ्छया॥]
अथ सहसा सुप्रीतं सुरतान्ते सा नितान्तखिन्नांगी।
राधा जगाद सादरमिदमानन्देन गोविन्दम ॥7॥[1]

अनुवाद- इसके बाद जिसकी काम-बाधा शान्त हो गयी है, ऐसी स्वाधीनभर्तृ का श्रीराधा अपने रति-श्रम-क्लान्त कान्त से अपने श्रृंगार की कामना से बोलीं- तदनन्तर सुरकाल के अन्त में अति खिन्न अंगों वाली श्रीराधा अचानक आनन्द और आदरपूर्वक श्रीगोविन्द से कहने लगीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एवं प्रियदर्शनानन्दोन्मत्ता प्रियं जगादेति तस्या: स्वाधीनभर्त्तृकावस्थां वर्णयिष्यन् आह]- [स्वाधीनभर्नृकालक्षणं यथा कान्तो रतिगुणाकृष्टो न जहाति यदन्तिकम। विचित्र-विभ्रमासक्ता सा स्यात् स्वाधीनभर्त्तृका इति साहित्यदर्पणे] सुरतान्ते (सुरतावसाने) नितान्तखिन्नांगी (अतीवक्लान्तावयवा) सा राधा इति (उक्तप्रकारेण) मनसा निगदन्तं (कथयन्तं चिन्तयन्तमित्यर्थ:) गोविन्दम् आनन्देन (आनन्दावेशेन) सादरं (यथा स्यात् तथा) इदं (वक्ष्यमाणं वचनं) जगाद (उक्तवती) ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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