विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:
त्रयोविंश: सन्दर्भ:
23. गीतम्
[अथ सा निर्गतबाधा राधा स्वाधीनभर्तृका। अनुवाद- इसके बाद जिसकी काम-बाधा शान्त हो गयी है, ऐसी स्वाधीनभर्तृ का श्रीराधा अपने रति-श्रम-क्लान्त कान्त से अपने श्रृंगार की कामना से बोलीं- तदनन्तर सुरकाल के अन्त में अति खिन्न अंगों वाली श्रीराधा अचानक आनन्द और आदरपूर्वक श्रीगोविन्द से कहने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [एवं प्रियदर्शनानन्दोन्मत्ता प्रियं जगादेति तस्या: स्वाधीनभर्त्तृकावस्थां वर्णयिष्यन् आह]- [स्वाधीनभर्नृकालक्षणं यथा कान्तो रतिगुणाकृष्टो न जहाति यदन्तिकम। विचित्र-विभ्रमासक्ता सा स्यात् स्वाधीनभर्त्तृका इति साहित्यदर्पणे] सुरतान्ते (सुरतावसाने) नितान्तखिन्नांगी (अतीवक्लान्तावयवा) सा राधा इति (उक्तप्रकारेण) मनसा निगदन्तं (कथयन्तं चिन्तयन्तमित्यर्थ:) गोविन्दम् आनन्देन (आनन्दावेशेन) सादरं (यथा स्यात् तथा) इदं (वक्ष्यमाणं वचनं) जगाद (उक्तवती) ॥7॥
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |