गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 487

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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बालबोधिनी- श्रीराधा रतिकाल में परिमर्दित होकर श्रान्त- क्लान्त हो गयी थीं। जैसे ही प्रात:काल हुआ, वह लज्जापूर्वक जल्दी-जल्दी अपने अंगों को आच्छादित करने लगीं। आच्छादित करती हुई वह श्रीकृष्ण को देख रही थीं और अपनी मुग्ध-कान्ति से श्रीकृष्ण का मन मोह रही थीं। उनका कबरी-बन्धन खुल गया था, अलकावली इधर-उधर बिखर रही थी। कपोलयुगल पर स्वेद सूख जाने पर अनेक धब्बे पड़ गये थे, बिम्ब-अधरों की कान्ति धूमिल हो गयी थी, स्तन-कलशों की कान्ति के पुर:सर में हार एवं काञ्ची की कान्ति हताश हो गयी थी। कञ्चुक के अभाव से हार की शोभा फीकी पड़ गयी थी और विवस्त्र होने से मेखला की कान्ति भी धूमिल हो गयी।

प्रस्तुत पद में स्त्रग्धरा छन्द है

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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