गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 48

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन
पद-नख-नीर-जनितजनपावन।
केशव धृत-वामनरूप
जय जगदीश हरे ॥5॥[1]

अनुवाद- हे सम्पूर्ण जगत के स्वामिन! हे श्रीहरे! हे केशव! आप वामन रूप धारण कर तीन पग धरती की याचना की क्रिया से बलि राजा की वञ्चना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिल से पवित्र हुआ है। हे अद्भुत वामन देव! आपकी जय हो ॥5॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय - हे केशव! हे धृतवामनरूप! (वामनरूपधर) हे पद-नख-नीर-जनित-जन-पावन (पदनख-नीरेण पदनखोद्भुतेन गंगाजलेन जनितं जनानां पावनं पवित्रता येन) हे अद्भुतवामन! (अपूर्ववामनमूत्तिधारिन्), विक्रमणे (पादत्रयेन त्रिभुवनाक्रमेण) बलिं (दानवपतिम् अतिदातृत्वगर्विणं) छलयसि (प्रतारयसि)। हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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