गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 476

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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पद्यानुवाद
माधव कर मनुहार प्रियासे रति-विलास-रस भूले।
जन-रञ्जक मधुमय लीला गा कवि 'जय' मन में फूले॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत अष्टपदी 'मधुरिपुमोदविद्याधर-लीला' में कवि जयदेव ने श्रीमधुसूदन के प्रमोद-आनन्द-वद्धर्न का निरूपण किया है। यह गीत रसिकों में मनोहर रति-रस-आनन्द की सृष्टि करे। रसिकजनों में रति-रस अथवा केलि-रस की अनुपमता एवं उज्ज्वलता की सर्वश्रेष्ठता अंगीकार की जाती है। इसी राग-रस को ही महामहिम श्रृंगार-रस के नाम से ख्यापित किया गया है।

इस प्रकार यह प्रबन्ध श्रीपति श्रीकृष्ण का प्रीतिकारक है, रति-रस के भाव को विकसित करने वाला है, संभोग-श्रृंगार को उन्मीलित करने वाला है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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