गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 475

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

त्रयोविंश: सन्दर्भ:

23. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमिदमनुपद-निगदितमधुरिपु-मोदम ।
जनयतु रसिकजनेषु मनोरम रतिरस भाव-विनोदम॥
क्षणमधुना.... ॥8॥[1]

अनुवाद- पद-पद पर मधुरिपु श्रीकृष्ण के आनन्द विनोद का वर्णन करने वाले जयदेव कवि द्वारा रचित यह गीत रसिक जनों में मनोरम-रति-रस-भाव विनोद को उत्पन्न करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अनुपद-निगदित-मधुरिपु-मोदं (अनुपदं प्रतिपदं निगदित: विवृत: मधुरिपो: श्रीकृष्णस्य मोद: हर्ष: यत्र तादृशं) इदं श्रीजयदेव भणितं (श्रीजयदेव कथित गीतं) रसिकजनेषु (श्रीकृष्णभक्तजनविशेषेषु) मनोरम-रतिरसभावविनोदं (मनोरमे रतिरसे यो भाव: तदास्वादरूप: तेन यो विनोद: हर्ष: तं) जनयतु ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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