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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्
अम्बुज कर खर नख से अपने, बालबोधिनी- चौथे पद्य में श्रीजयदेवजी ने नृसिंहावतार के रूप में भगवान का स्तवन किया है। दु:खकातर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कष्ट स्वीकार कर लेते हैं, पर दूसरों का दु:ख सहन नहीं कर पाते। दिति पुत्र हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र महाभागवत प्रह्लाद पर अत्याचार किया तो भगवान ने नृसिंह वेश में उस महादैत्य के वक्ष:स्थल को निज नख से विदीर्ण कर उनकी रक्षा की। हे नरहरि रूप धारण करने वाले केशव! आपके श्रेष्ठ करकमल में नख समुदाय एक श्रेष्ठ कमल के अग्रभाग के समान हैं, उनमें अति तीक्ष्णता है। यह नख समुदाय अति अद्भुत, पहाड़ की चोटी के समान अति आश्चर्यजनक है। कमलाग्ररूप इन नखों का यह वैशिष्ट्य है कि अन्य कमल के अग्रभागों को तो भ्रमर विदीर्ण करते हैं, परन्तु आपके करकमलों के अग्रभाग ने तो दैत्यरूपी भ्रमर का ही दलन कर दिया है। विश्वकोषमें श्रंग शब्द का अर्थ बजाने वाला विषाण, उत्कर्ष एवं अग्रभाग है। भ्रमर के उदाहरण से कृष्ण-वर्णत्व को भी सूचित किया गया है। यह रूपक अलप्रार है। श्री नृसिंह रूप को वात्सल्य रस का अधिष्ठान माना जाता है ॥4॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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