गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 47

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद-

अम्बुज कर खर नख से अपने,
हिरण्यकशिपु के हर सब सपने।
केशव नरहरि-रूप लसे, जय जगदीश हरे ॥4॥

बालबोधिनी- चौथे पद्य में श्रीजयदेवजी ने नृसिंहावतार के रूप में भगवान का स्तवन किया है। दु:खकातर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कष्ट स्वीकार कर लेते हैं, पर दूसरों का दु:ख सहन नहीं कर पाते। दिति पुत्र हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र महाभागवत प्रह्लाद पर अत्याचार किया तो भगवान ने नृसिंह वेश में उस महादैत्य के वक्ष:स्थल को निज नख से विदीर्ण कर उनकी रक्षा की। हे नरहरि रूप धारण करने वाले केशव! आपके श्रेष्ठ करकमल में नख समुदाय एक श्रेष्ठ कमल के अग्रभाग के समान हैं, उनमें अति तीक्ष्णता है। यह नख समुदाय अति अद्भुत, पहाड़ की चोटी के समान अति आश्चर्यजनक है। कमलाग्ररूप इन नखों का यह वैशिष्ट्य है कि अन्य कमल के अग्रभागों को तो भ्रमर विदीर्ण करते हैं, परन्तु आपके करकमलों के अग्रभाग ने तो दैत्यरूपी भ्रमर का ही दलन कर दिया है। विश्वकोषमें श्रंग शब्द का अर्थ बजाने वाला विषाण, उत्कर्ष एवं अग्रभाग है। भ्रमर के उदाहरण से कृष्ण-वर्णत्व को भी सूचित किया गया है। यह रूपक अलप्रार है। श्री नृसिंह रूप को वात्सल्य रस का अधिष्ठान माना जाता है ॥4॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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