गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 462

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वादश: सर्ग:
सुप्रीत-पीताम्बर:

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पद्यानुवाद
स्मर पूरित मन, लगी थिरकने दीठ 'शयन' की ओर
तरल स्मित भी लगी भिगाने मधुर अधर की कोर,
लज्जा से हो उठे लाल जब गोरे मृदुल कपोल
सखी गमन पर हरि राधा से बोल उठे दो बोल-

बालबोधिनी- जब श्रीराधा निकुंज-लता-गृह में केलि-विलास शय्या के समीप पहुँचीं तो सखियाँ स्वयं को बाधक मानकर विविध प्रकार के बहाने बनाकर चली गयीं। श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को मन में अत्यधिक लज्जित होते हुए देखा। काम की परवशता के वशीभूत हो मन्द-मन्द मुस्कराहट श्रीराधा के होठों पर खेल रही थी, उत्सुकता से पूर्ण पल्लवों की सेज की ओर देखे जा रही थीं, कुछ बोल नहीं पा रही थीं, मन अनुराग से भरा हुआ था, नवीन पल्लवों द्वारा रचित शय्या ही उनका अभिप्राय-सर्वस्व हो रहा था। श्रीराधा की ऐसी मानसिक स्थिति को देखकर श्रीकृष्ण ने सानुराग उनसे कहा।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द है। इस सर्ग में स्वाधीनभर्तृ का नायिका वर्णित हुई है। शय्या का पुन-पुनरावलोकन श्रीराधा की संभोगेच्छा का निदर्शन करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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