गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 452

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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बालबोधिनी- चिरकाल के विरह के पश्चात् जब श्रीराधा का श्रीकृष्ण के साथ मिलन हुआ तो श्रीराधा के नेत्र अपांगों (कटाक्षपातों) का अतिक्रमण करके कानों तक पहुँच गये। इसी श्रम से मानो उनके नेत्रों में पसीना आनन्दाश्रु के रूप में जलधारा के समान बहने लगा। इतने समय बाद प्रियतम को देखा तो हर्ष स्थिर न रह सका, आँखों से छलछलाने लगा। रतिक्रीड़ा के आस्वादन से आँखें पसीना-पसीना हो गयीं। बड़ी-बड़ी आँखें कानों तक पहुँचना चाहती थीं और इसी प्रयास में उनमें शैथिल्य आ गया। शिथिलता के कारण वे नमित हो गयीं, झुक गयीं, जलमय हो गयीं। नेत्र-प्रान्त का अतिक्रमण करके श्रवण पथ तक जाने के प्रयास में स्वेद-अम्बु छलछलाया। नेत्रों में प्रिय-दर्शन की आकांक्षा से अति चंचलत्व तो हो रहा था।

श्रीराधा का सात्त्विक भाव प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत श्लोक में उपमा अलंकार है और शिखरिणी छंद है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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