गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 45

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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पद्यानुवाद-

दशन अग्र धरणी यह लग्ना,
शोभित चन्द्र कलप्र निमग्ना।
केशव सूकर-रूप लसे,
जय जगदीश हरे ॥3॥

बालबोधिनी- अष्टपदी के तृतीय पद में भगवान की स्तुति की गयी है। भगवान पृथ्वी को धारण करते हैं, इतना ही नहीं, समस्त चराचर को धारण करने वाली पृथ्वी को अपने दाँतों पर अवस्थित कर चलते भी हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्याक्ष जब बीजभूता पृथ्वी का अपहरण करके रसातल में चला गया था, तो श्रीभगवान ने वराहरूप धारण किया और प्रलयकालीन जल के भीतर प्रविष्ट होकर अपने दाँतों के अग्रभाग पर पृथ्वी को उठाकर ऊपर ले आये तथा अपने सत्यसप्रल्परूपी योगबल के द्वारा उसे जल के ऊपर स्थापित किया। जिस समय भगवान अपने दाँतों के अग्रभाग पर पृथ्वी को उठाकर ला रहे थे, उस समय उनके उज्ज्वल दाँतों के ऊपर पृथ्वी ऐसे सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार चन्द्रमा के भीतर उसके बीच में उसकी कालिमा सुशोभित होती है। कवि ने भगवान के दाँतों को बाल चन्द्रमा की उपमा देकर उनके दाँतों के महदाकारत्व तथा धरणी के अल्पाकारत्व को सूचित किया है। धरणी कलप्र कलावत निमग्ना है। निमग्न शब्द से वराहदेव भयानक रस के अधिष्ठाता रूप में प्रकाशित होते हैं। इस पद में उपमा अलंकार है। हे शूकररूप धारिण! आपकी जय हो ॥3॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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