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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:
द्वाविंश: सन्दर्भ:
22. गीतम्
शशि-किरण-च्छुरितोदर-जलधर-सुन्दर-सकुसुम-केशम्। अनुवाद- कुसुमों से अलंकृत श्रीकृष्ण का केश-पाश चन्द्रकिरणों से अनुरञ्जित होकर नवजलधर माला के समान प्रतीत हो रहा है, ललाट पर धारण किया चन्दन तिलक इस प्रकार शोभा प्राप्त कर रहा है, मानो निर्मल आकाश में अन्धकार के मध्य पूर्ण विधुमण्डल उदित हुआ हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय-शशि-किरण-च्छुरितोदर-जलधरसुन्दर-सकुसुमकेशं (शशिन: चन्द्रस्य किरणै: छुरितं व्याप्तम् उदरं यस्य तादृश: य: जलधर: तद्वत्-सुन्दरा: सकुसुमा: कुसुमखचिता: केशा: यस्य तम्) [अत्र केशानां जलधरेण पुष्पाणाञ्च इन्दूकिरणेन साम्यम्] [तथा च] तिमिरोदित-विधुमण्डल-निर्म्मल-मलयज- तिलकनिवेशं (तिमिरे अन्धकारे उदितं विधुमण्डलमिव निर्म्मल: मलयजतिलक-निवेश: चन्दन-तिलक-विन्यास: यस्य तम्) [हरिं सा ददर्श] [अत्र ललाटस्य तिमिरेण, तिलकस्य च इन्दुमण्डलेन साम्यम्] ॥6॥
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