गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 445

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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शशि-किरण-च्छुरितोदर-जलधर-सुन्दर-सकुसुम-केशम्।
तिमिरोदित-विधुमण्डल-निर्मलमलयज-तिलकनिवेशम्॥
हरि.... ॥6॥[1]

अनुवाद- कुसुमों से अलंकृत श्रीकृष्ण का केश-पाश चन्द्रकिरणों से अनुरञ्जित होकर नवजलधर माला के समान प्रतीत हो रहा है, ललाट पर धारण किया चन्दन तिलक इस प्रकार शोभा प्राप्त कर रहा है, मानो निर्मल आकाश में अन्धकार के मध्य पूर्ण विधुमण्डल उदित हुआ हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय-शशि-किरण-च्छुरितोदर-जलधरसुन्दर-सकुसुमकेशं (शशिन: चन्द्रस्य किरणै: छुरितं व्याप्तम् उदरं यस्य तादृश: य: जलधर: तद्वत्-सुन्दरा: सकुसुमा: कुसुमखचिता: केशा: यस्य तम्) [अत्र केशानां जलधरेण पुष्पाणाञ्च इन्दूकिरणेन साम्यम्] [तथा च] तिमिरोदित-विधुमण्डल-निर्म्मल-मलयज- तिलकनिवेशं (तिमिरे अन्धकारे उदितं विधुमण्डलमिव निर्म्मल: मलयजतिलक-निवेश: चन्दन-तिलक-विन्यास: यस्य तम्) [हरिं सा ददर्श] [अत्र ललाटस्य तिमिरेण, तिलकस्य च इन्दुमण्डलेन साम्यम्] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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