गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 442

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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तरल-दृगञ्चल-चलन-मनोहर-वदन-जनित-रतिरागम् ।
स्फुट-कमलोदर-खेलित-खञ्जन-युगमिव शरदि तडागम्॥
हरि.... ॥4॥[1]

अनुवाद- जिन श्रीकृष्ण का मनोहर वदन शरद काल के निर्मल सरोवर में विकसित नील-कमल की शोभा के समान है, उस मुख पर चंचल नयनों की अपांग-भंगिमा श्रीराधा के प्रति इस प्रकार मदन-अनुराग उद्दीप्त करा रही है, मानो कमल पर खञ्जन पक्षी क्रीड़ापरायण हो रहे हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- तरल-दृगञ्चल-चलन-मनोहर-वदन-जनित-रतिरागम् (तरलस्य चञ्चलस्य दृगञ्चलस्य चलनेन कटाक्षक्षेपेण मनोहरं यत् वदनं तेन जनित: उत्पादित: रतिराग: सुरतौत्सुक्यं येन तं) [अतएव] शरदि (शरत्काले) स्फुटकमलोदर-खेलित- खञ्जनयुगम् (स्फुटं विकसितं यत्र कमलं पद्मं तस्य उदरे अभ्यन्तरे खेलितं क्रीड़ा परं खञ्जनयुगं यत्र तादृशं) तड़ागम् इव [हरिं] सा ददर्श इति शेष:]। [अत्र श्रीहरे: तड़ागेन वदनस्य कमलेन, नयनयोश्च खञ्जनयुगलेन साम्यम्] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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