गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 441

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

द्वाविंश: सन्दर्भ:

22. गीतम्

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श्यामल-मृदुल-कलेवर-मण्डलमधिगत-गौरदुकूलम्।
नील-नलिनमिव पीत-पराग-पटल-भर-वलयित-मूलम्॥
हरि.... ॥3॥[1]

अनुवाद- श्रीहरि ने अपने श्यामल मृदुल कलेवर पर पीत वसन धारण किया है, ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो नीलपद्म सुवर्ण-पर्ण के पराग-निलय से सांगोपांग सराबोर हो गया हो।

पद्यानुवाद
श्यामल कोमल वपु पर सज्जित सुन्दर गौर दुकूल,
पीत पराग पटल है राजित ज्यों नलिनीके फूल।

बालबोधिनी- श्रीहरि का श्रीविग्रह श्यामवर्ण है, जिस पर उन्होंने पीत वर्ण का पीताम्बर धारण कर रखा है, वह इस प्रकार सुशोभित हो रहा है, जैसे नीलकमल अपने पीले पराग से परिपूर्ण रूप से परिवेष्टित मंडित हो रहा हो। इस बात की भी सूचना दी जा रही है कि श्याम-वर्ण के वक्ष:स्थल पर तुम गौरांगी की शोभा भी अत्यधिक होगी।

इस प्रकार विपरीत-रति भी प्रदर्शित हुई है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अधिगत-गौरदुकूलं (अधिगतं प्राप्तं परिहितमिति यावत्र गौरं पीतं दुकूलं पट्टाम्बरं येन तं) तथा श्यामल मृदुल-कलेवर-मण्डलं (श्यामलं मृदुलञ्च कोमलञ्च कलेवर-मण्डलं यस्य तं यथोचितावयव-सन्निावेश-प्रतिपादनार्थं मण्डलत्वेनोक्ति:) अत: पीतपरागपटलभरवलयितमूलं (पीतेन परागाणां मध्यस्थरजसां पटल-भरेण समूहातिशयेन वलयितं वेष्टितं मूलं यस्य तं) नीलनलिनम्र (नीलोत्पलम्र) इव हरिं ददर्श। नीलकमलेन श्रीहरे: परागेण च पीतवसनस्य साम्यम् ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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