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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:
द्वाविंश: सन्दर्भ:
22. गीतम्
श्यामल-मृदुल-कलेवर-मण्डलमधिगत-गौरदुकूलम्। अनुवाद- श्रीहरि ने अपने श्यामल मृदुल कलेवर पर पीत वसन धारण किया है, ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो नीलपद्म सुवर्ण-पर्ण के पराग-निलय से सांगोपांग सराबोर हो गया हो। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीहरि का श्रीविग्रह श्यामवर्ण है, जिस पर उन्होंने पीत वर्ण का पीताम्बर धारण कर रखा है, वह इस प्रकार सुशोभित हो रहा है, जैसे नीलकमल अपने पीले पराग से परिपूर्ण रूप से परिवेष्टित मंडित हो रहा हो। इस बात की भी सूचना दी जा रही है कि श्याम-वर्ण के वक्ष:स्थल पर तुम गौरांगी की शोभा भी अत्यधिक होगी। इस प्रकार विपरीत-रति भी प्रदर्शित हुई है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अधिगत-गौरदुकूलं (अधिगतं प्राप्तं परिहितमिति यावत्र गौरं पीतं दुकूलं पट्टाम्बरं येन तं) तथा श्यामल मृदुल-कलेवर-मण्डलं (श्यामलं मृदुलञ्च कोमलञ्च कलेवर-मण्डलं यस्य तं यथोचितावयव-सन्निावेश-प्रतिपादनार्थं मण्डलत्वेनोक्ति:) अत: पीतपरागपटलभरवलयितमूलं (पीतेन परागाणां मध्यस्थरजसां पटल-भरेण समूहातिशयेन वलयितं वेष्टितं मूलं यस्य तं) नीलनलिनम्र (नीलोत्पलम्र) इव हरिं ददर्श। नीलकमलेन श्रीहरे: परागेण च पीतवसनस्य साम्यम् ॥3॥
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