गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 44

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ प्रथम सन्दर्भ
अष्टपदी
1. गीतम्

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वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलप्रकलेव निमग्ना।
केशव धृत-शूकररूप
जय जगदीश हरे ॥3॥[1]


अनुवाद - हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलक के सहित सम्मिलित रूप से दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है ॥3॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय हे केशव! हे धृत-शूकररूप! (स्वीकृत-वराह- विग्रह) तव दशनशिखरे (दन्ताग्रे) लग्ना (अवस्थिता) धरणी (पृथ्वी, लोकधारणकर्त्त्य्रपि) शशिनि (चन्द्रे) निमग्ना कलकंकला (कलकरेखा) इव वसति (अवतिष्ठते); हे जगदीश, हे हरे, त्वं जय (सर्वोत्कर्षेण वर्त्तस्व) ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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