गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 436

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

एकविंश: सन्दर्भ:

21. गीतम्

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बालबोधिनी- सखी श्रीराधा से कहती है- हे राधे! आपको चिरकाल तक हृदय में धारण करने के कारण श्रीहरि श्रान्त-क्लान्त हो गये हैं, अन्दर-ही-अन्दर अभितप्त हो गये हैं, कामदेव ने इन्हें अत्यन्त सन्तप्त कर दिया है, आपके सुधारस से परिपूर्ण कुन्दरु फल के सदृश अरुण अधरों की मधुराई का पान करना चाहते हैं। इसलिए हे प्रिये! अपने इन अभिलाषी प्रिय के अंगों की शोभा बनिये! एक क्षण के लिए ही कटाक्ष विक्षेप कर तुमने इन्हें अपना क्रीतदास बना लिया है। तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाले श्रीकृष्ण के अंक को समलंकृत करो, बिना संकोच के उनके वक्ष:स्थल को अलंकृत करो। इसमें कैसी लज्जा, कैसा भाव और कैसी हिचक?

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीडित छन्द तथा रूपक एवं उत्प्रेक्षा अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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