गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 435

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

एकविंश: सन्दर्भ:

21. गीतम्

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त्वां चित्तेन चिरं वहन्नयमतिश्रान्तो भृशं तापित:
कन्दर्पेण च पातुमिच्छति सुधा-सम्बाध-विम्बाधरम्।
अस्यांक तदलङ्कुरु क्षणमिह भ्रूक्षेप-लक्ष्मीलव-
क्रीते दास इवोपसेवित-पदाम्भोजे कुत: सम्भ्रम: ॥1॥[1]

अनुवाद- हे सुन्दरि! तुम्हारे सामने अवस्थित अनंग ताप से सन्तप्त श्रीकृष्ण दीर्घकाल से तुमको मन-ही-मन धारण किये हुए अतिशय क्लान्त हो गये हैं, वे तुम्हारे बिम्बसम अधर की मधुर सुधा का पान करने के लिए लोलुप हो रहे हैं, तुम अभिलाषी प्रिय के अंक को अलंकृत करो। वे तुम्हारे कटाक्षरूप विपुल वैभव के कण मात्र के क्षण-भर पान करने के लिए चिरकृतज्ञ हो रहे हैं, उस कटाक्ष-विक्षेपरूपी मूल्य के द्वारा क्रीतदास की भाँति तुम्हारे पदारविन्द के सेवक हो गये हैं, फिर सम्भ्रम क्यों? कैसी घबराहट?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथ सखी तस्या: प्रसादमालक्ष्य कौतुकेन सनर्म्माह]- [सखि] चित्तेन (मनसा) त्वां चिरं बहन् (धारयन्) [तव पीनस्तन-श्रोणी-गुरुभारेण] अतिश्रान्त:, कन्दर्पेण भृशं (अत्यर्थं) तापितश्च; अतएव श्रमेण तापने च पिपासित: अयं (श्रीकृष्ण:) तव सुधासम्वाधम् (सुधया अमृतेन सम्वाधं संकट व्याप्तमिति यावत्र) विम्बाधरं पातुम् इच्छति; तत्र (तस्मात्) अस्य अंक (क्रोड़) क्षणम् अलंकुरु (शोभय) अन्तस्थिताया: बहि:स्थितस्य पानानुपपत्तेरिति भाव:]। [ननु अविदित चित्तस्य अंकप्रवेशे मन्मन: संकुचित इतिचेत् तत्रह]- भ्रूक्षेप-लक्ष्मी-लव-क्रीते (भ्रुवो: क्षेप: चालनं स एव लक्ष्मी: ऋद्धि: तस्या लवेन लेशेन क्रीते) अतएव उपसेवित-पदाम्भोजे (उपसेवितं पदाम्भोजं पादपद्मं येन तादृशे) दासे इव [अस्मिन् श्रीकृष्णे] सम्भ्रम: (संकोच:) कुत: [अल्पमूल्यक्रीते दासे इव क्रयक्रीते शंका न युक्ता, क्रीतस्यैव सेवोपयोगादितिभाव:] ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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