गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 426

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

एकविंश: सन्दर्भ:

21. गीतम्

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नव-भवदशोक-दल-शयन-सारे
विलस कुचकलशतरल हारे!
प्रविश.... ॥2॥[1]

पद्यानुवाद
नवल अशोक-दलोंकी मृदुतर,
शैया झलक रही है मनहर।

अनुवाद- प्रिय समागम सूचक कम्पनमय कुचकलशों में विराजित चञ्चल हार वाली राधे! नूतनोद्भव अशोक-पत्रों में विरचित शय्या पर तुम प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।

बालबोधिनी- सखी कहती है- कलश सरीखे स्तनों पर चञ्चल मुक्ताहार धारण करने वाली राधे! तुम्हारा यह चञ्चल हार संकेत कर रहा है कि तुम भी रतिचपल हो। तुम्हारे लिए यह किसलय शय्या नवीन अशोक पत्तों से रचाई गई है। जाओ, इस सुसज्जित शय्या पर विलसो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [नहि मे मन: उच्छलितम् अस्य तव नागरस्य वैकल्यमाकलष्य मद्ववदनं हसतीति चेत्र तत्राह]- कुच-कलस- तरल-हारे (कुचकलसयो: स्तनकुम्भयो: तरल: कम्पवशात् चञ्चल: हार: यस्या:, अयि तादृशि) [राधे] [कुचकलसकम्पेन] अन्तर्वृत्तिर्व्यक्ता अतो वाम्यं न युक्तमितिभाव:] नव-भवदशोक- दल-शयनसारे [नवभविद्ध: तरुणै: अशोकदलै रचितं शयनसारं शयनश्रेष्ठं यत्र तादृशे) इह [केलिसदने] माधव-समीपं प्रविश [ततश्च] विलस (विहर) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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