गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 424

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

एकविंश: सन्दर्भ:

21. गीतम्

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वराडीरागरूपकतालाभ्यां गीयते।
मञ्जुतर-कुञ्जतल-केलिसदने।
विलस रतिरभसहसितवदने! ॥1॥
प्रविश राधे! माधवसमीपमिह।ध्रुवपदम्र।[1]

अनुवाद- हे राधे! तुम्हारा वदन रतिजन्य उत्साह से अतिशय रस के साथ उत्फुल्लित हो रहा है, तुम इस मनोहर निकुञ्ज के केलिगृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- रति-रभस-हसित-वदने (रतिरभसेन सुरतोत्साहेन हसितं सहास्यं वदनं यस्या:, अयि तादृशि; तव उच्छलितं मन: अत्युत्सुकतया हास्यमिषेण प्रियमिलनाय बहिर्निर्गतमितिभाव:) अयि राधे, इह मञ्जुतर-कुञ्जतल-केलिसदने (मञ्जुतरम् अतिमनोहरं कुञ्जतलं कुञ्जाभ्यन्तरमेव केलिसदनं तत्र) माधव-समीपं प्रविश [तत:] विलस (विहर) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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