गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 418

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

विंश: सन्दर्भ:

20. गीतम्

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अक्ष्णोर्निक्षिपदञ्जनं श्रवणयोस्तापिच्छ गुच्छावलीं।
मूर्द्धिन् श्यामसरोजदामकुचयो: कस्तूरिका-पत्रकम्॥
धूर्त्तानामभिसार-सत्त्वर-हृदां विष्वङ्निकुञ्जे सखि।
ध्वान्तं नील-निचोल-चारु सुदृशां प्रत्यंगमालिंगति ॥2॥[1]

अनुवाद- हे सखि! देखो, निकुंज में चारों ओर घिरा हुआ अंधकार अभिसार में चंचलमना सुनयना कामिनियों का अञ्जन है, कानों में तमाल की गुच्छावली है, मस्तक पर विराजित श्याम-कमल की माला है, कुच-कुम्भ में विरचित कस्तूरि का चित्र बना है। रमणीयतर रूप से आवृत यह अंधकार नीले वसन से भी मनोहरतर आवरण रूप में धूर्तों के साथ अभिसार के उत्साह से युक्त रमणियों के प्रत्येक अंग-प्रत्य को कैसे आलिंगति कर रहा है ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथान्धकारे अभिसारोचितवेशोपकरणमपि एतदेवेत्याह]- अयि सखि निकुञ्जे विष्वक् (सर्वतोव्यापि) नीलनिचोलचारु (नीलनीचोलादपि चारु मनोज्ञं सर्वांगावरकत्वेन आलिंगनमुत्प्रेक्षितम्) ध्वान्तं (तम:) धूर्त्तानाम् (परवञ्चकानाम्) अभिसार-सत्त्वर-हृदां (अभिसारे सत्त्वरं त्वरान्वितं हृत् हृदयं यासां तथाभूतानां); [परवञ्चकतया कदाचित् सत्त्वरम् अभिसरेत् इत्यतो विलम्बो न कार्य इति भाव:] सुदृशां (सुलोचनानां रमणीनां) अक्ष्णो: (नेत्रयो:) अञ्जनं (कज्जलं) श्रवणयो: (कर्णयो:) तापितच्छ-गुच्छावलीं (तापिच्छानां तमालानां गुच्छावलीं कुसुमस्तवकश्रेणीं कर्णभूषण भूतामित्यर्थ:) मूर्द्धर्नि (शिरसि) श्याम-सरोज-दाम (नीलोत्पलरचितां मालां) तथा कुचयो: (स्तनयो:) कस्तूरिकापत्रकं (मृगनाभि रचित पत्र-भंग-लेखां) निक्षिपत्र (दूरं प्रेरयत्; स्वयं तत्तद्रूपेण परिणमदिति भाव:) प्रत्यंग (अंगे अंगे) आलिंगति (प्रियाभिसारानुकूल्येन सुखं ददातीत्यर्थ:) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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